Wednesday 20 June 2018

मेरी आयरा

नन्हीं-सी एक परी
उतरी है मेरे आँगन में 
लगता है उसके पहले
कोई कमी थी जीवन में
[ IYRA }














रोती है वो कभी-कभी
तो कभी वो मुस्कराती है
मेरी सारे दिन की
थकान को दूर भगाती है

अपनी नन्हीं उंगलियों से
मुझको वो छूना चाहती है
होता है दिन मेरा पूरा
जब "माँ" वो मुझे बुलाती है

-ईप्सा

Friday 1 June 2018

मेरा भी तो मन करता है


यहाँ सुने इस बाल कविता को एक बच्ची के स्वर में



मेरा भी तो मन करता है
मैं भी पढ़ने जाऊँ
अच्छे कपड़े पहन
पीठ पर बस्ता भी लटकाऊँ

क्यों अम्मा औरों के घर
झाडू-पोंछा करती है
बर्तन मलती, कपड़े धोती
पानी भी भरती है

अम्मा कहती रोज
‘बीनकर कूड़ा-कचरा लाओ’
लेकिन मेरा मन कहता है
‘अम्मा मुझे पढ़ाओ’

कल्लन कल बोला
बच्चू ! मत देखो ऐसे सपने
दूर बहुत है चाँद
हाथ हैं छोटे-छोटे अपने

लेकिन मैंने सुना
हमारे लिए बहुत कुछ आता
हमें नहीं मिलता
रस्ते में कोई चट कर जाता

डौली कहती है
बच्चों की बहुत किताबें छपती
सजी-धजी दूकानों में
शीशे के भीतर रहतीं

मिल पातीं यदि हमें किताबें
सुन्दर चित्रों वाली
फिर तो अपनी भी यूँ ही
होती कुछ बात निराली

   
-डा० जगदीश व्योम

Wednesday 28 February 2018

मन के भोले-भाले बादल

झब्बर-झब्बर बालों वाले
गुब्बारे से गालों वाले
लगे दौड़ने आसमान में
गुब्बारे से काले बादल

कुछ जोकर-से तोंद फुलाए
कुछ हाथी-से सूँड़ उठाए
कुछ ऊँटों-से कूबड़ वाले
कुछ परियों-से पंख लगाए
आपस में टकराते रह-रह
शेरों से मतवाले बादल

कुछ तो लगते हैं तूफ़ानी
कुछ रह-रह करते शैतानी
कुछ अपने थैलों से चुपके
रह-रह-रह बरसाते पानी
नहीं किसी की सुनते कुछ भी
ढोलक-ढोल बजाते बादल

रह-रहकर छत पर आ जाते
फिर चुपके ऊपर उड़ जाते
कभी-कभी जि़द्दी बन करके
बाढ़ नदी-नालों में लाते
फिर भी लगते बहुत भले हैं
मन के भोले-भाले बादल


-कल्पनाथ सिंह



Wednesday 14 February 2018

मिट्ठू और मिंकू

राम चरित मानस
पढ़ता था
दिन में मिट्ठू तोता
लेकिन सुबक सुबक कर मिट्ठू
रात रात भर रोता

मिंकू
विद्यालय से लौटा
खेल रहा फ़ुटबाल
मिट्ठू की पिंजरे में केवल
तीन कदम की चाल

मिंकू दौड़े खेतों में
मिट्ठू पिंजरे में होता

मिट्ठू के
बचपन का साथी
बैठा हुआ मुंडेर
रहा देखता मिट्ठू उसको
जाने कितनी देर

रोज रात को सपने में
मिट्ठू पेड़ों पर सोता

और एक दिन
मिट्ठू जब
बैठा था बहुत उदास
मिंकू को उसके दुक्खों का
हुआ तभी अहसास

पिंजरा खुला लगाए मिट्ठू
अब खुशियों का गोता

-प्रदीप शुक्ल


टिन्नी


टिन्नी के पापा टिन्नी को खूब खूब समझाएं
अंग्रेजी, विज्ञान, गणित की पुस्तक रोज पढ़ाएं

टिन्नी कहती, पापा मुझको कला बहुत है भाती
पल भर में ही कितने सारे सुन्दर चित्र बनाती

पापा कहते अच्छा है, पर अभी पढ़ो विज्ञान
मन मसोस कर रह जाती है नन्ही सी वह जान

जैसे तैसे पास किया उसने अपना स्कूल
अब विज्ञान गणित विषयों को जाना चाहे भूल

पापा चाहें इंजीनियरिंग कॉलेज पढ़ने जाए
टिन्नी को पर फाइन आर्ट्स का कॉलेज ही ललचाये

इसी बात पर टिन्नी के घर होती रोज लड़ाई
छोटी सी यह बात मगर पापा को समझ न आई

इंजीनियरिंग कॉलेज में टिन्नी अब दिन भर रोती
पापा से भी बातचीत टिन्नी की कम ही होती

फेल हो गई टिन्नी अब तो मन ही मन घबराए
तभी एक दिन पापा उसके कॉलेज चलकर आए

हाल देखकर टिन्नी का अब दुखी हुए हैं पापा
डांट पड़ेगी खूब सोचकर टिन्नी का मन कांपा

पर पापा ने बहुत प्यार से उसको गले लगाया
और उसी क्षण कॉलेज से बस उसका नाम कटाया

अब जो भी मन होगा उसका टिन्नी वही पढ़ेगी
अपने मन चाहे रंगों की दुनिया खूब गढ़ेगी ll

-प्रदीप शुक्ल

फ़रवरी में गुल्लू

जल्दी जगने लगे आजकल
दिन गुल्लू के गाँव में
और दोपहर में सुस्ताने लगे
नीम की छाँव में

बाहर निकल
किताबें अब तो
झांक रही हैं झोले से
गुल्लू भैया जान बूझ कर
बने हुए हैं भोले से

डर है चित ना हो जाएं वह
इम्तेहान के दाँव में

मैच आ रहा
है टीवी पर
मन उसमे ही डोल रहा
खुला हुआ पन्ना हिस्ट्री का
गुल्लू से कुछ बोल रहा

तारीखें सब युद्ध कर रही हैं
अब मारे ताव में

सोते ही
बजने लगती है
रोज घड़ी की घंटी
सर के ऊपर तनी हुई है
इम्तेहान की संटी

बेड पर गुल्लू बाबू बैठे
कम्बल डाले पाँव में

-प्रदीप शुक्ल

नाव, नदी और छुटकू


नदी किनारे गांव
गांव में छुटकू रहता है
छुटकू का मन वहीं नाव में
डोला करता है

उसका मन है
नदिया के संग
दूर देश जाऊं
रंग बिरंगी ढेर किताबें
लेकर मैं आऊँ

दिल की बातें अक्सर वह
पानी से कहता है

पढ़ने लिखने
से आएगा
उसको ज्यादा ज्ञान
और ज्ञान से बन पाएगा
वह बेहतर इंसान

दादू कहते
ज्ञान किताबों में ही बहता है

छुटकू की बातें
मछली को
लगतीं बहुत भली
उसे देखकर छोटी मछली
आती तुरत चली

सूरज भी पानी में
उसके संग संग चलता है

- प्रदीप शुक्ल

Sunday 31 December 2017

भैयनलाल का अँगूँठा

मुँह में बार-बार दे लेते
भैयनलाल अँगूठा जी

अभी-अभी था मुंह से खींचा
था गीला तो साफ किया
पहले तो डाँटा था मां ने
फिर बोली जा माफ किया
अब बेटे मुँह में मत देना
गन्दा-गन्दा जूठा जी

चुलबुल नटखट भैयन को पर
मजा अँगूठे में आता
लाख निकालो मुँह से बाहर
फिर-फिर से भीतर जाता
झूठ मूठ गुस्सा हो मां ने
एक बार फिर खींचा जी

अब तो मचले, रोए भैयन
माँ ने की हुड़कातानी
रोका क्यों मस्ती करने से
क्यों रोका मनमानी से
रोकर बोले चखो अँगूठा
स्वाद शहद से मीठा जी

-प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Friday 28 October 2016

दीपावली का है त्योहार

सारंग सारांश चलो बाजार
दीपावली का है त्योहार
सजे हुए हैं हर घर द्वार
दीपों की हर ओर कतार
यह देखो बच्चों की फौज
करती फिरती कितनी मौज
चला हवाई छुटा अनार
चले पटाखे बारम्बार
डिंपल होकर के तल्लीन
सुलगाती माचिस रंगीन
फुलझड़ियों में रंग अनेक
मग्न हुआ बच्चा हर एक
लक्ष्मी जी से एक सवाल
करता हूँ मैं तो हर साल
धन की तो देवी है आप
ले सकती थीं आप जहाज
या ले लेतीं बढ़िया कार
उल्लू पर क्यों चढ़ती आप
उल्लू पर क्यों चढ़ती आप।।

-डा० संजय चतुर्वेदी
[दीपावली की बहुत सारी शुभकामनाएँ]

[डा० संजय चतुर्वेदी दिल्ली के शिक्षा विभाग में उप शिक्षा निदेशक (जोनल) हैं। बाल साहित्य पर उन्होंने पहली बार बाल कविता लिखी है। दीपावली पर लिखी डा० संजय जी की पहली बाल कविता का स्वागत करें।]

Tuesday 4 October 2016

है किस की तस्वीर

सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्वीर ?

नंगा बदन, कमर पर धोती
और हाथ में लाठी
बूढ़ी आँखों पर है ऐनक
कसी हुई कद-काठी
लटक रही है बीच कमर पर
घड़ी बँधी जंजीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्वीर?

उनको चलता हुआ देखकर
आँधी शरमाती थी
उन्हें देखकर, अँग्रेजों की
नानी मर जाती थी
उनकी बात हुआ करती थी
पत्थर खुदी लकीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्वीर ?

वह आश्रम में बैठ
चलाता था पहरों तक तकली
दीनों और गरीबों का था
वह शुभचिंतक असली
मन का था वह बादशाह,
पर पहुँचा हुआ फकीर
सोचो और बताओ,
आखिर है किसकी तस्वीर?

सत्य अहिंसा के पालन में
पूरी उमर बिताई
सत्याग्रह कर करके
जिसने आजादी दिलवाई
सत्य बोलता रहा जनम भर
ऐसा था वह वीर
सोचो और बताओ,
आखिर है किसकी तस्वीर?

जो अपनी ही प्रिय बकरी का
दूध पिया करता था
लाठी, डंडे, बंदूकों से
जो न कभी डरता था
दो अक्टूबर के दिन
जिसने धारण किया शरीर
सोचो और बताओ,
आखिर है किसकी तस्वीर ?

-डा० जगदीश व्योम

चाँद का कुर्ता


हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला

सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का

बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा

घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है

अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये

-रामधारी सिंह दिनकर

Thursday 25 June 2015

गुल्लू का कम्प्यूटर

गुल्लू का कम्प्यूटर आया
पूरा गाँव देख मुस्काया

दादी के चेहरे पर लाली
ले आई पूजा की थाली

गुल्लू सबको बता रहा है
लाईट कनेक्शन सता रहा है

माउस लेकर छुटकू भागा
अभी अभी था नींद से जागा

अंकल ने सब तार लगाये
गुल्लू को कुछ समझ न आये

कंप्यूटर तो हो गया चालू
न ! स्क्रीन छुओ मत शालू

जिसे खोजना हो अब तुमको
गूगल में डालो तुम उसको

कक्का कहें चबाकर लईय्या
मेरी भैंस खोज दो भैय्या

बड़े जोर का लगा ठहाका
खिसियाये से बैठे काका

-डॉ. प्रदीप शुक्ल

Thursday 16 October 2014

तितली

-निरंकार देव सेवक

दूर देश से आई तितली
चंचल पंख हिलाती
फूल-फूल पर
कली-कली पर
इतराती-इठलाती


यह सुन्दर फूलों की रानी
धुन की मस्त दीवानी
हरे-भरे उपवन में आई
करने को मनमानी

कितने सुन्दर पर हैं इसके
जगमग रंग-रंगीले
लाल, हरे, बैंजनी, वसन्ती
काले, नीले, पीले

कहाँ-कहाँ से फूलों के रंग
चुरा-चुरा कर लाई
आते ही इसने उपवन में
कैसी धूम मचाई

डाल-डाल पर, पात-पात पर
यह उड़ती फिरती है,
कभी ख़ूब ऊँची चढ़ जाती है
फिर नीचे गिरती है

कभी फूल के रस-पराग पर
रुककर जी बहलाती
कभी कली पर बैठ न जाने
गुप-चुप क्या कह जाती

-निरंकार देव सेवक 

Tuesday 31 July 2012

एक सवाल



-ठाकुर श्रीनाथ सिंह
आओपूछें एक सवाल
मेरे सिर में कितने बाल ?

कितने आसमान में तारे ?
बतलाओ या कह दो हारे

चिड़ियाँ क्या करती हैं बात ?

नदिया क्यों बहती दिन रात ?

क्यों कुत्ता बिल्ली पर धाए ?
बिल्ली क्यों चूहे को खाए ?


फूल कहाँ से पाते रंग ?
रहते क्यों न जीव सब संग ?


बादल क्यों बरसाते पानी ?
लड़के क्यों करते शैतानी ?


नानी की क्यों सिकुड़ी खाल ?
अजीन ऐसा करो सवाल


यह सब ईश्वर की है माया
इसको कौन जान है पाया !



तिल्ली सिंह


-रामनरेश त्रिपाठी



पहने धोती कुरता झिल्ली
गमछे से लटकाये किल्ली
कस कर अपनी घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह जा पहुँचे दिल्ली
पहले मिले शेख जी चिल्ली
उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली
बिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली
उसने धर दबोच दी बिल्ली
मरी देख कर अपनी बिल्ली
गुस्से से झुँझलाया चिल्ली
लेकर लाठी एक गठिल्ली
उसे मारने दौड़ा चिल्ली
लाठी देख डर गया तिल्ली
तुरत हो गयी धोती ढिल्ली
कस कर झटपट घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह ने छोड़ी दिल्ली
हल्ला हुआ गली दर गल्ली
तिल्ली सिंह ने जीती दिल्ली!

-रामनरेश त्रिपाठी
(1889 - 1962)

घूम हाथी, झूम हाथी


-विद्याभूषण 'विभु`

घूम हाथीझूम हाथी
घूम हाथीझूम हाथी
घूम हाथीझूम हाथी
हाथी झूम झूम झूम
हाथी घूम घूम घूम

राजा झूमें रानी झूमें
झूमें राजकुमार
घोड़े झूमें फौजें झूमें
झूमें सब दरबार
झूम झूम घूम हाथी
घूम झूम झूम हाथी
हाथी झूम झूम झूम
हाथी घूम घूम घूम

राज महल में बाँदी झूमे,
पनघट पर पनिहारी
पीलवान का अंकुश झूमें
सोने की अम्बारी
झूम झूम घूम हाथी
घूम झूम झूम हाथी
हाथी झूम झूम झूम
हाथी घूम घूम घूम



-विद्याभूषण 'विभु`

(1892 - 1965)

नटखट हम, हां नटखट हम


-सभामोहन अवधिया 'स्वर्ण सहोदर`

नटखट हमहां नटखट हम !
नटखट हम हां नटखट हम,
करने निकले खटपट हम
आ गये लड़के आ गये हम,
बंदर देख लुभा गये हम
बंदर को बिचकावें हम,
बंदर दौड़ा भागे हम
बच गये लड़के बच गये हम,
नटखट हम हां नटखट हम !

बर्र का छत्ता पा गये हम,
बांस उठा कर आ गये हम
छत्ता लगे गिराने हम,
ऊधम लगे मचाने हम
छत्ता टूटा बर्र उड़े,
आ लड़कों पर टूट पड़े
झटपट हट कर छिप गये हम,
बच गये लड़के बच गये हम !

बिच्छू एक पकड़ लाये,
उसे छिपा कर ले आये
सबक जांचने भिड़े गुरू,
हमने नाटक किया शुरू
खोला बिच्छू चुपके से,
बैठे पीछे दुबके से
बच गये गुरु जी खिसके हम,
पिट गये लड़के बच गये हम !

बुढ़िया निकली पहुँचे हम,
लगे चिढ़ाने जम जम जम
बुढ़िया खीझे डरे न हम,
ऊधम करना करें न कम
बुढ़िया आई नाकों दम,
लगी पीटने धम धम धम
जान बचा कर भागे हम,
पिट गये लड़के बच गये हम!



-सभामोहन अवधिया 'स्वर्ण सहोदर`
(1902 - 1980)

बादल


-सन्तोष कुमार सिंह
रोज निहारूँ नभ में तुझको,
काले बादल भैया।
गरमी से सब प्राणी व्याकुल,
रँभा रही घर गैया।।

पारे जैसा गिरे रोज ही,
भू के अन्दर पानी।
ताल-तलैया पोखर सूखे,
बता रही थी नानी।।

तापमान छू रहा आसमां,
प्राणी व्याकुल भू के।
बिजली खेले आँख मिचोली,
झुलस रहे तन लू से।।

जल का दोहन बढ़ा नित्य है,
कूँए सूख गए हैं।
तुम भी छुपकर बैठे बादल,
लगता रूठ गए हैं।।

गुस्सा त्यागो, कहना मानो,
नभ में अब छा जाओ।
प्यासी नदियाँ भरें लबालव,
इतना जल बरसाओ।।

छप-छप, छप-छप बच्चे नाचें,
अगर मेह बरसायें।
हर प्राणी का मन हुलसेगा,
देंगे तुम्हें दुआयें।।



-सन्तोष कुमार सिंह

ओ री चिड़िया


 -कृष्ण शलभ
जहाँ कहूँ मैं, बोल, बता दे
क्या जाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।

चन्दा मामा के घर जाना
वहाँ पूछ कर इतना आना
आ करके सच-सच बतलाना
कब होगा धरती पर आना
कब जाएगी, बोल लौट कर
कब आएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।

पास देख सूरज के जाना
जा कर कुछ थोड़ा सुस्ताना
दुबकी रहती धूप रात-भर
कहाँ? पूछना, मत घबराना
सूरज से किरणों का बटुआ
कब लाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।

चुन-चुन-चुन-चुन गाते गाना
पास बादलों के हो आना
हाँ, इतना पानी ले आना
उग जाए खेतों में दाना
उगा न दाना, बोल बता फिर
क्या खाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।

Monday 17 October 2011

इब्नबतूता का जूता

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
इब्नबतूता
पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
थोड़ी घुस गई कान में
कभी नाक को
कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता
उड़ते उड़ते उनका जूता
पहुंच गया जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दूकान में

हल्लम हल्लम हौदा

-डॉ० श्री प्रसाद
हल्लम हल्लम हौदा
हाथी चल्लम चल्लम
हम बैठे हाथी पर
हाथी हल्लम हल्लम
लम्बीं लम्बीं सूंड़
फटा फट फट्टर फट्टर
लम्बें लम्बें दांत
खटा खट खट्टर खट्टर
भारी भारी सूंड़
मटकता झम्मम झम्मम
पर्वत जैसी देह
थुल थुली थल्लम थल्लम
हल्लर हल्लर देह
हिले जब हाथी चल्लम
खम्भे जैसे पाँव
धमा धम धम्मम धम्मम
हाथी जैसी नहीं
सवारी अग्गड़ बग्गड़
पीलवान पुच्छन
बैठा है बांधे पग्गड़
बैठे बच्चे बीस
सभी हम डग्गम मग्गम

Monday 29 August 2011

लड्डू ले लो

-माखनलाल चतुर्वेदी
(1889 - 1968)





ले लो दो आने के चार
लड्डू राज गिरे के यार
यह हैं धरती जैसे गोल
ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल
इनके मीठे स्वादों में ही
बन आता है इनका मोल
दामों का मत करो विचार
ले लो दो आने के चार।
लोगे खूब मज़ा लायेंगे
ना लोगे तो ललचायेंगे
मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
हँसी खुशी से सब खायेंगे
इनमें बाबू जी का प्यार
ले लो दो आने के चार।
कुछ देरी से आया हूँ मैं
माल बना कर लाया हूँ मैं
मौसी की नज़रें इन पर हैं
फूफा पूँछ रहे क्या दर है
जल्द खरीदो लुटा बजार
ले लो दो आने के चार।




एक बूँद

-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध`
(1865 - 1947)

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़ कर मैं यों कढ़ी
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वो समन्दर ओर आयी अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी
लोग यौं ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर !

देल छे आए

-श्रीधर पाठक
( 1860 )


बाबा आज देल छे आए,
चिज्जी पिज्जी कुछ ना लाए।
बाबा क्यों नहीं चिज्जी लाए,
इतनी देली छे क्यों आए।
कां है मेला बला खिलौना,
कलाकंद, लड्डू का दोना।
चूं चूं गाने वाली चिलिया,
चीं चीं करने वाली गुलिया।
चावल खाने वाली चुहिया,
चुनिया-मुनिया, मुन्ना भइया।
मेला मुन्ना, मेली गैया,
कां मेले मुन्ना की मैया।
बाबा तुम औ कां से आए,
आं आं चिज्जी क्यों ना लाए।


Wednesday 10 August 2011

खिचड़ी के यार

-उषा यादव
चिड़िया लेकर आई चावल
और कबूतर दाल
बंदर मामा बैठे-बैठे
बजा रहे थे गाल
चिड़िया और कबूतर बोले
मामा, लाओ घी
खिचड़ी में हिस्सा चाहो तो
ढूँढ़ो कहीं दही
पहले से हमने ला रक्खे
पापड़ और अचार
यही चार तो होते हैं जी
इस खिचड़ी के यार !